मेरे बचपन की सबसे बड़ी या फिर ये कहना सही होगा कि, सबसे बड़ी बेवकूफी भरी शरारत.....
हमारे समय में शक्तिमान सीरियल आता था। जिसमे बच्चे किसी भी मुसीबत में पड़ जाए
तो गंगाधर शक्तिमान बनकर गोल गोल घूमता हुआ उड़कर आ जाता था, बचाने।
चित्र गूगल से लिया है
भोला मन, भोला बचपन, एक दिन स्कूल में हम छात्राओं ने भी प्लान बनाया कि लंच ब्रेक में हम
भी झूठ मूठ मुसीबत में पड़ेंगे और शक्तिमान को बुलाएंगे।
कुल पांच सहेलियां थे हम। प्ले ग्राउंड के पीछे वाली दीवार के पास पुराने बैंच का ढेर लगा था।
जिसपर चढ़ते हुए हम छत पर बारी बारी से चढ़े। कोई देख न ले इसलिए पीछे की दीवार का
ही चयन किया गया।
छत पर पहुंच कर हम वहां से कूदने वाले थे, शक्तिमान को बुलाते हुए, ताकि शक्तिमान
बचा लें। लेकिन ऊपर से नीचे देखते ही सिट्टी पिट्ट गुम।
हमने सोचा आंख मूंद कर कूदेंगे तो डर नहीं लगेगा। आंख बंद कर किनारे तक आ गए
लेकिन कूदे नहीं। और तभी सबसे पीछे वाली लड़की ने गुस्साते हुए
कहा कि," हटो मुझे आगे रहना हैं। और तेजी से आगे बढ़ी। लेकिन तभी स्कूल बेल
बजी यानी लंच टाइम खत्म हो गया। जल्दी क्लास में उपस्थित होने के लिए हम सब
उतरने लगे। लेकिन मेरी सहेली जो पहले उतर रही थी का नीचे झुकने समय हाथ फिसल
गया, और वो गिरने लगी और हम सब उसे बचाने के लिए लपके।
कोई शक्तिमान बचाने नहीं आया हम सब नीचे बैंच पर गिरे। बहुत बेतरतीब गिरे थे
हम, कोई सर के बल कोई हाथ तो कोई पैर के बल। बहुत ज्यादा चोट आई।
मेरे पैर की एड़ी टूट गई थी। सर पर चोट थी। नाक में चोट थी। उस साल के
छमाही परीक्षा मे भी हम नही बैठ पाए। शुक्र था की हम बच गए थे।
३महीने लग गए थे ठीक होने में।
जब गिरे थे तब यकीन था अब नही बचेंगे। लेकिन ईश्वर और घर वालो की दुआ ने बचा लिया।
तब से कभी भी शक्तिमान देखने नही दिया घरवालों ने।